शिव-पार्वती संवाद कथा (भाग 40): सखी द्वारा श्रीराम-लक्ष्मण का प्रथम दर्शन और पुष्पवाटिका-निरीक्षण
सर्वप्रथम तुलसीदास जी कथा को काशी से प्रयाग ले गए थे अब याज्ञवल्क्य जी इस कथा को प्रयाग से कैलाश —तीसरे घाट की ओर ले जा रहे हैं।
तुलसीदास जी लिखते हैं —
परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥
अब याज्ञवल्क्य जी भारद्वाज जी को रामकथा सुना रहे हैं —
याज्ञवल्क्य जी कहते हैं —
"भारद्वाज जी! उस कैलाश- शिखर पर माँ भवानी और भगवान शिव का सदैव वास है।"
तुलसीदास जी लिखते हैं —
तेहि गिरि पर पट बिटपु बिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला।।
एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुख भयऊ ।।
याज्ञवल्क्य जी कहते हैं —
"उसी कैलाश पर्वत पर एक बरगद का वृक्ष है। बाबा उसी वटवृक्ष के नीचे सदैव विश्राम करते हैं। उस वटवृक्ष की यह विशेषता है कि वह नित्य नूतन बना रहता है।
एक दिन भगवान शंकर उस वटवृक्ष के नीचे गए । उसे देखकर बाबा के हृदय में बहुत आनंद हुआ ।"
तुलसीदास जी लिखते हैं —
निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठे सहजहिं संभु कृपाला॥
सहज भाव में बैठे शिव जी कैसे दिखाई दे रहे हैं ?
गोस्वामी जी लिखते हैं —
बैठे सोह कामरिपु कैसे । धरे सरीर शांत रस जैसे।।"
कामदेव के शत्रु शिवजी वहाँ बैठे हुए ऐसे शोभित हो रहे थे, मानो शांतरस ही शरीर धारण किए बैठा हो।
पार्वती भल अवसर जानी । गई शंभु पहि मातु भवानी।।
बाबा को वटवृक्ष के नीचे बैठे हुए देख माता आनंदित हो गई। शिव जी को परम शांत देखकर मैया ने सोचा —
"यही समय है बाबा के समक्ष अपने मन की बात रखने का..."
मैया सुंदर अवसर जानकर बाबा के पास गई।
शेष अगले पृष्ठ पर.....
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Jai shree Ram
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