शिव-पार्वती संवाद कथा (भाग 40): सखी द्वारा श्रीराम-लक्ष्मण का प्रथम दर्शन और पुष्पवाटिका-निरीक्षण
(पार्वतीजी द्वारा अपने भ्रम को दूर करने की प्रार्थना)
तुलसीदास जी लिखते हैं —
ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥
पार्वती जी ने कहा—
हे शशिभूषण! हे नाथ! हृदय में ऐसा विचार कर मेरी बुद्धि के भ्रम को दूर कीजिए
(शिवजी का पार्वतीजी से करुणामय संवाद)
शंकर भगवान ने पार्वती जी से बोले—
"देवी! आपको भी भ्रम है !"
(सतीजी के मोह का कारण और उसका प्रभाव)
भवानी बोली—
"यह भ्रम तो पिछले जन्म का है, प्रभु!"
(पार्वतीजी के मन का संशय और तर्क)
तुलसीदास जी लिखते हैं —
प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥
सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥
रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई॥
भवानी बोली—
"प्रभु! ऋषिगण कहते हैं कि राम जी 'ब्रह्म' है । शेष,सरस्वती,पुराण सभी राम जी की महिमा का गुणगान करते हैं।
मै आपको भी माला लेकर दिन-रात 'राम- राम' जपते देखती हूँ।
मेरा प्रश्न है -
"आप सभी लोग जिन राम जी की चर्चा करते हैं, क्या ये अयोध्या के महाराज दशरथ के आँगन मे खेलने वाले 'राम' हैं या कोई दूसरे अजन्मा,अलौकिक, परम तत्व हैं!"
शंकर भगवान ने पूछा—
"ऐसा प्रश्न आपके मन में क्यों आया,देवी ?"
जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि।
देखि चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥
भवानी बोली—
"प्रभु! मुझे पता है कि ब्रह्म का जन्म नहीं होता। ब्रह्म निराकार है । ऐसा प्रश्न मेरे मन में इसलिए आया—
यदि रामजी ब्रह्म हैं , तो एक ब्रह्म राजा का पुत्र कैसे बन गया और यदि राम जी राजा के पुत्र हैं, तो जन्म लेनेवाले एक राजपुत्र को आप लोग ब्रह्म कैसे बता रहे हैं ?"
"हे नाथ! पिछले जन्म में उनकी लीला देखकर और इस जन्म में आपके मुख से उनकी महिमा सुनकर मुझे भ्रम हो गया है। आप सबसे पहले यह कारण बताइये —
निराकार भगवान साकार क्यों हुए?"
(पार्वतीजी द्वारा साकार-सगुण की जिज्ञासा)
जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कहहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥
अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥
"यदि इच्छारहित, व्यापक, समर्थ ब्रह्म कोई और हैं, तो हे नाथ! मुझे उसे समझाकर कहिए। मुझे नादान समझकर मन में क्रोध न लाइए। जिस तरह मेरा मोह दूर हो, वही कीजिए। राम जी की पूरी लीला सुनाइये। "
मैं बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई॥
तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा॥
"मैंने (पिछले जन्म में) वन में श्री रामचन्द्र जी की प्रभुता देखी थी, परन्तु अत्यन्त भयभीत होने के कारण मैंने वह बात आपको सुनाई नहीं। तो भी मोह वश मेरे मन को बोध न हुआ। उसका फल भी मैंने अच्छी तरह पा लिया । राम जी की पूरी लीला सुनाइये। "
(शंकर भगवान पार्वतीजी का मोह मिटाने के लिए श्रीरामचरितमानस की कथा प्रारंभ करेंगे)
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