शिव-पार्वती संवाद कथा (भाग 40): सखी द्वारा श्रीराम-लक्ष्मण का प्रथम दर्शन और पुष्पवाटिका-निरीक्षण
सभी देवता अपनी-अपनी देवियों के साथ सज-धजकर कैलाश पर्वत की ओर प्रस्थान कर गए। स्वर्गलोक उत्सव से भर गया।
देवियाँ भगवान शिव के इस विशेष, अद्भुत और विचित्र वर-स्वरूप को देखकर चकित रह गईं —
नागों के आभूषण, भस्म का लेप, और मुंडों की माला!
देवतागण अपने-अपने वाहनों पर सवार होकर आनंदपूर्वक बारात में सम्मिलित होने चले। स्वर्ग की सारी सृष्टि इस विवाह-यात्रा में उमड़ पड़ी थी। चारों ओर मंगलगान हो रहा था।
शिवजी का ऐसा अलौकिक दूल्हा रूप देखकर देवियाँ आपस में कहने लगीं,
“क्या यही है वह वर जिसे पार्वती ने वरन किया है?” उनके मन में आश्चर्य और थोड़ी चिंता भी थी — लेकिन पार्वती जी की निष्ठा अडिग थी।
बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज।
बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज॥
विष्णु जी ने ब्रह्मा जी से कहा —
"वर के अनुरूप बारात नहीं है ।इसलिए अपने-अपने समाज को लेकर अपने-अपने समूह के साथ में आगे बढिये।"
आज्ञा मानकर सभी देवतागण अपने-अपने समूह के साथ बारात लेकर आगे निकल गए।
यह सब देखकर नंदी बाबा के पास दौड़े आए और बोले —
“बाबा! आप डमरू बजाइए, मैं दौड़कर सबसे आगे चलता हूँ!”
शिवजी मुस्कराए और बोले —
“ठहरो नंदी, उन्हें जाने दो। हमारे लिए सच्चा आनंद तो अपने गणों के साथ है। अपने समाज को बुलाओ — यही मेरी बारात है।”
🌿 "वास्तविक आनंद अपने समाज में" — शिवजी का भावपूर्ण कथन
बाबा के वचन थे —
“जो मेरे हैं, जैसे हैं, उन्हीं के साथ चलना मुझे प्रिय है। नाग, भूत, पिशाच, गंधर्व, किन्नर — यही मेरे साथी हैं। यही मेरी बारात सजाएँगे।”
शिवजी ने भृंगी से कहा कि अपने समाज को बुलाओ....
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