शिव-पार्वती संवाद कथा (भाग 40): सखी द्वारा श्रीराम-लक्ष्मण का प्रथम दर्शन और पुष्पवाटिका-निरीक्षण
भारद्वाज मुनि बसहि प्रयागा। तिनहि रामपद अति अनुरागा।।
तापस सम दम दया निधाना । परमारथ पथ परम सुजाना।।
तुलसीदास जी कहते हैं - तीर्थराज प्रयाग में एक मुनि है जिनका नाम है भारद्वाज और इनका परिचय देते हुए गोस्वामी जी कहते हैं कि उनको भगवान श्रीराम जी के श्रीचरणों में अति अनुराग (प्रेम) है ।
(आज भी प्रत्येक वर्ष माघ महीने में प्रयाग में एक महीने तक मेला लगता है और संपूर्ण भारत के ऋषि मुनि प्रयागराज में जाकर एक महीने तक कल्पवास करते हैं)
एक बार तीर्थराज प्रयाग में जब माघ महीने में मेला समाप्त हुआ तो एक महीने के कल्पवास के बाद जब सभी ऋषि- मुनि अपने-अपने आश्रम की ओर वापस जाने लगे, तब भारद्वाज जी ने याज्ञवल्क्य मुनि के चरणों को पकड़ लिया और विनती करते हुए बोले कि
"प्रभु! सब लोग जा रहे हैं आप मत जाइए ।"
भारद्वाज जी ने याज्ञवल्क्य मुनि को आसन देकर उनका सत्कार किया । याज्ञवल्क्य मुनि ने पूछा कि
"आपने मुझे क्यों रोक लिया? "
भारद्वाज जी ने कहा कि "मेरे मन में एक संशय है और वह संशय आप ही समाप्त कर सकते हैं।"
याज्ञवल्क्य मुनि ने पूछा कि "क्या संशय है ?"
भारद्वाज जी बोले,
राम कवन प्रभु पूछहु तोही। कहिय बुझाई कृपानिधि मोही ।।
अर्थात हे प्रभु! यह राम जी कौन हैं?
एक राम जी को तो मैं भी जानता हूँ, जो अयोध्या के महाराज श्री दशरथ जी के पुत्र हैं। उनकी कीर्ति-पताका तीनों लोकों में विदित है। उनकी पत्नी का हरण हुआ था। तब राम जी को क्रोध आया और युद्ध में जाकर उन्होंने रावण का अंत कर दिया । उन राम जी को तो मैं जानता हूँ।
याज्ञवल्क्य मुनि बोले , "फिर आप पूछ क्या रहे हैं?"
भारद्वाज जी बोले,"हे मुनिवर! जिन राम जी को मैं जानता हूँ, क्या शंकर जी भी रात-दिन उन्हीं राम जी का नाम जपते रहते हैं या शंकर जी जिन राम जी का नाम जपते हैं, वे कोई और राम है? दोनों अलग-अलग राम हैं या एक ही राम हैं ? यही मेरा प्रश्न है ।
याज्ञवलिक बोले मुसकाई । तुमहि विदित रघुपति प्रभुताई।।
राम भगत तुम मन क्रम बानी। चतुराई तुम्हारि मैं जानी ।।
चाहहु सुनिय राम गुन गूढ़ा। कीन्हेहु प्रश्न मनहु अति मूढ़ा।।
याज्ञवल्क्य मुनि गदगद होकर बोले ,"मैं आपकी चतुराई समझ गया । भारद्वाज जी ! आप तो राम जी के भक्त हैं । आप राम जी की गूढ़ कथा सुनना चाहते हैं इसीलिए आप मूढ़ अर्थात मूर्ख बनकर मुझसे प्रश्न कर रहे हैं ? मैं आपकी चतुराई समझ गया । मैं आपको कथा अवश्य सुनाऊंगा लेकिन बीच में एक दूसरी कथा पहले सुनाता हूँ ।"
सीख- यह कथा कहती है कि अपने से विद्वान के सामने मूढ अर्थात मूर्ख बनकर ही रहना चाहिए इसी में भलाई है ।
याज्ञवल्क्य ऋषि कथा को त्रेता युग में लेकर जाते हैं -
नोट- अगले पृष्ठ पर भगवान शिव और सती की कथा का वर्णन किया गया है>>>>>>>>>>
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