शिव-पार्वती संवाद कथा (भाग 40): सखी द्वारा श्रीराम-लक्ष्मण का प्रथम दर्शन और पुष्पवाटिका-निरीक्षण
तुलसीदास जी लिखते हैं —
"हे शरणागत के दुःखों को हरने वाले! मेरी रक्षा कीजिए ।"
भगवान के चरणों में गिरकर बोले —
"प्रभु! ऐसी कृपा कीजिए कि मेरे द्वारा कहे गए सभी शब्द झूठे हो जाएँ।"
भगवान बोले —
"असंभव है। आपका नाम ही 'नारद' है इसका अर्थ है—
जिसकी कही हुई बात रद्द न हो । आपकी बात कैसे झूठी हो जाएगी !"
नारद जी बोले —
"प्रभु ! मैंने श्राप दे दिया है, आपको ।"
प्रभु बोले —
"नारद जी! आपने नहीं दिया है । मैंने स्वयं लिया है आपसे, श्राप। आपको इस योग्य जाना । इसलिए मैंने अपनी लीला में आपको सम्मिलित किया। जाइए और जाकर शिवजी के नाम को स्मरण कीजिए।"
तुलसीदास जी लिखते हैं —
जपहु जाइ संकर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरत बिश्रामा॥
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी॥
भगवान ने कहा—
"जाइए, जाकर शंकरजी के 100 नामों (शतनाम) का जप करो, इससे हृदय में तुरंत शांति होगी। शिवजी के समान मुझे कोई प्रिय नहीं है, इस विश्वास को भूलकर भी न छोड़ना ।
हे मुनि ! पुरारि (शिवजी) जिस पर कृपा नहीं करते, वह मेरी भक्ति नहीं पाता। हृदय में ऐसा निश्चय करके, पृथ्वी पर जाओ और कहीं भी विचरण करो । अब मेरी माया तुम्हारे निकट नहीं आएगी ।
(नारद जी के इसी श्राप-वश भगवान को अवतार लेना पड़ा । ☝️यह राम जी के जन्म का तीसरा कारण है)
भगवान के अवतार लेने का पहला और दूसरा कारण जानने के लिए 👇 पढ़ें —
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Jai shree Ram
ReplyDeleteJai shree Ram
ReplyDeleteजय श्री राम
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ReplyDeleteरामरामजी
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