शिव-पार्वती संवाद कथा (भाग 40): सखी द्वारा श्रीराम-लक्ष्मण का प्रथम दर्शन और पुष्पवाटिका-निरीक्षण
👉जानकारी के लिए स्पष्ट किया जा रहा है —
श्रीरामचरितमानस जी को समझने के लिए कथा के प्रारंभ से जुड़े रहना चाहिए । तभी श्रीराम जी के चरित्र की कथा का पूर्ण रूप से आनंद प्राप्त होगा ।
भगवान श्रीराम जी के चरित्र की कथा श्री याज्ञवल्क्य मुनि, भारद्वाज मुनि जी को सुना रहे हैं —
मैं यदि रसोई बनाऊँ और तुम उसे परोसो और मुझे कोई जानने न पावे, तो उस अन्न को जो-जो खाएगा, सो-सो तुम्हारा आज्ञाकारी बन जाएगा ।
हे राजन्! जाकर यही उपाय करो और वर्षभर (भोजन कराने) का संकल्प कर लेना ।
नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार।
मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिं करबि जेवनार॥
अर्थात नित्य नए एक लाख ब्राह्मणों को कुटुम्ब सहित निमंत्रित करना। मैं तुम्हारे सकंल्प के काल अर्थात एक वर्ष तक प्रतिदिन भोजन बना दिया करूँगा ।
कपटी मुनि ने कहा —
हे राजन्! मैं एक और पहचान तुमको बताए देता हूँ कि मैं इस रूप में कभी नहीं आऊँगा। मैं अपनी माया से तुम्हारे पुरोहित को हर लाऊँगा । अपने तप के बल से उसे अपने समान बनाकर एक वर्ष यहाँ रखूँगा और मैं उस पुरोहित के रूप में रहकर एक लाख ब्राह्मणों के लिए प्रतिदिन भोजन बना दिया करूँगा ।
कालकेतु राक्षस जो कपटी मुनि का मित्र था, वह पुरोहित का रूप धारण कर प्रतापभानु के महल में पहुँच गया । भ्रम वश प्रतापभानु कालकेतु राक्षस को पहचान न सका ।
पुरोहित बने कालकेतु राक्षस ने रसोई तैयार की ।
राजा ने कपटी मुनि के कहे अनुसार एक लाख ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलाया।
लेकिन उसी समय एक घटना घटी ।जैसे ही सभी ब्राह्मण आचमन हेतु जल हाथ में लेकर भोजन प्रारंभ करने जा ही रहे थे , उसी समय आकाशवाणी हुई —
"जिस भोजन को आप खाने जा रहे हैं उस भोजन में ब्राह्मणों का मांस मिलाया गया है ।"
आकाशवाणी सुनते ही सभी ब्राह्मण भोजन छोड़कर खड़े हो गए और ऋषि अगस्त्य ने प्रतापभानु को श्राप दे दिया- "इसी समय परिवार सहित असुर हो जाओ।"
मुनियों के श्राप के प्रभाव से यही प्रतापभानु राजा अगले जन्म में परिवार सहित राक्षस 'रावण' हुआ और उसका छोटा भाई अरिमर्दन 'कुंभकरण' हुआ । प्रतापभानु का मंत्री रावण का सौतेला भाई 'विभीषण' बना।
रावण जन्म लेने के बाद अपने भाई कुंभकरण और विभीषण के साथ कठोर तपस्या करने चला गया। उसने दस हज़ार वर्षों तक निरंतर तप किया, जिसमें उसने भोजन और जल त्याग दिया। वह गंगा तट पर खड़ा होकर अपने सिर काटकर भगवान शिव को चढ़ाने लगा, हर बार एक नया सिर उग आता। इस तरह उसने नौ सिर चढ़ाए, और दसवें सिर को चढ़ाने ही वाला था कि भगवान शिव प्रकट हुए।
शिव ने प्रसन्न होकर रावण को वरदान देने की बात कही। रावण ने अमरता माँगी,
लेकिन शिव जी ने कहा कि "अमरता असंभव है।"
तब रावण ने कहा —
"वानर और मनुष्य को छोड़कर मुझे कोई न मार सके।"
एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा। मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा॥
शिवजी पार्वती जी से कहते हैं —
"हे देवी ! तब मैंने और ब्रह्मा ने मिलकर उसे वर दिया कि ऐसा ही हो, तुमने बड़ा तप किया है।"
(शिव जी ने उसे यह वरदान दे दिया, जिससे रावण और शक्तिशाली हो गया।)
(कुंभकरण वरदान माँगना चाहता था कि वह एक दिन सोए और 6 महीने जागे ।
ब्रह्मा जी समझ गए कि अगर इसने ऐसा वरदान माँग लिया तब तो संपूर्ण सृष्टि खत्म हो जाएगी इसलिए ब्रह्मा जी ने माता सरस्वती से कुंभकरण की बुद्धि फेरने के लिए कहा ।)
कुंभकरण ने वरदान मांगा कि "मैं 6 महीने सोऊ और एक दिन जागू।"
ब्रह्मा जी ने कहा, 'तथास्तु'
विभीषण जी ने "भगवान श्री राम के चरणों में प्रीत मांगी"
ब्रह्मा जी ने कहा, 'तथास्तु' ऐसा ही होगा ।
'मय' नामक दानव ने अपनी बेटी मंदोदरी का विवाह रावण से कराया । रावण ने लंका में अपनी राजधानी बनाई और अपने परिवार के साथ रहने लगा ।
रावण का अत्याचार पृथ्वी पर इतना बढ़ गया कि देवता मनुष्य सभी परेशान हो गए।
तुलसीदासजी लिखतेहैं
"जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा।
आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा॥
अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहिं काना।
तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना॥"
अर्थात जप, योग, वैराग्य, तप तथा यज्ञ में (देवताओं के) भाग पाने की बात रावण कहीं कानों से सुन पाता, तो (उसी समय) स्वयं उठ दौड़ता। कुछ भी रहने नहीं पाता, वह सबको पकड़कर विध्वंस कर डालता था। संसार में ऐसा भ्रष्ट आचरण फैल गया कि धर्म तो कानों में सुनने में नहीं आता था, जो कोई वेद और पुराण कहता, उसको बहुत तरह से त्रास देता और देश से निकाल देता था।
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Jai shree Ram
ReplyDeleteJai shree Ram
ReplyDeleteजय श्री राम 🙏
ReplyDeleteजय श्री हनुमान 🙏