शिव-पार्वती संवाद कथा (भाग 40): सखी द्वारा श्रीराम-लक्ष्मण का प्रथम दर्शन और पुष्पवाटिका-निरीक्षण
(आप सभी ने इसके पहले के पृष्ठों पर भगवान रामजन्म के 5 कारण पढ़े ,जो शिवजी ने माता पार्वती को सुनाए। इन्हीं कारणों के परिणाम स्वरुप भगवान श्री राम ने अयोध्या में अवतार लिया ।)
भगवान राम के जन्म लेने की खुशी पूरी अयोध्या में ही नहीं अपितु घर-घर में श्रीराम जन्मोत्सव मनाया जा रहा है। घर-घर बधाई गाई जा रही है । ऐसा लग रहा है कि मानो भगवान ने उनके ही घर में जन्म लिया है।
अयोध्या में चारों ओर धूम मची है । अयोध्या का यह आनंद महोत्सव देखते ही देखते चार गुना बढ़ गया ।
क्या संभव है ऐसा ?
क्यों नहीं हुई रात?
गोस्वामी जी लिखते हैं —
क्योंकि पतंग अर्थात सूर्यनारायण अयोध्या का उत्सव देखकर रथ को आगे बढ़ाना भूल गए। श्रीराम जन्मोत्सव देखने के लिए वहीं रुक गए और मन में विचार कर रहे हैं कि उत्सव जब बंद होगा, तब हम आगे बढ़ेंगे । इस प्रकार एक मास बीत गया और अवध में दिन ही बना रहा।
( इधर अयोध्यावासी सोच रहे हैं कि रात हो, तब हम बधाई गाना और उत्सव मनाना बंद करें और उधर सूर्यनारायण यह सोच रहे हैं कि जब उत्सव बंद हो, तब हम अपने रथ को आगे बढ़ाए। इस प्रकार ना सूर्यदेव आगे बढ़ रहे हैं और ना ही अयोध्यावासी अपना उत्सव बंद कर रहे हैं।)
गोस्वामी जी लिखते हैं —
यह रहस्य काहूँ नहिं जाना । दिनमनि चले करत गुनगाना ॥
देखि महोत्सव सुर मुनि नागा । चले भवन बरनत निज भागा ॥
भगवान शंकर माता भवानी को कथा सुनाते हुए कहते हैं
" हे देवी! एक मास बाद सूर्यनारायण, भगवान का गुणगान करते हुए रथ को आगे बढ़ाते हैं और अयोध्यावासियों को इस रहस्य का पता ही नहीं चला।"
गोस्वामी जी लिखते हैं —
औरउ एक कहउँ निज चोरी । सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी ॥
काकभुसुंडि संग हम दोऊ । मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ।।
शिवजी बोले—
"हे देवी !अब मैं एक बात बताता हूँ , जो मैने आपसे छिपाई है।"
माता ने पूछा—
"प्रभु !क्या आपने मुझसे कुछ छिपाया भी है!"
शिवजी बोले—
"देवी! आपको पता नहीं है कि जब भगवान ने पृथ्वी पर अवतार लिया, तब मैं आपको बिना बताए पृथ्वी पर उनके दर्शन करने गया था। "
माता बोली—
"प्रभु ! आप अकेले ही चले गए थे ?"
शिव जी ने कहा—
"देवी! मैं अकेले नहीं गया था। कागभुसुंडी जी के साथ गया था। मनुष्य के रूप में हम दोनों गए थे । हमने अयोध्या में जाकर देखा कि महाराज दशरथ ने उस समय जिसने जो भी माँगा, उसको सब कुछ दिया।"
गोस्वामी जी लिखते हैं —
"गज रथ तुरग हेम गौ हीरा । दीन्हे नृप नाना विधि चीरा।।"
महाराज ने हाथी, रथ, घोड़ा, गाय, हीरा, मणि, विविध प्रकार के वस्त्र आदि सब दान में दिए इतना दिया कि माँगने वाले संतुष्ट हो गए।
विशेष—
गोस्वामी जी ने मानस में लिखा है—
धर्म के चार पद हैं। जिस प्रकार एक चौकी के चार पाए होते हैं, उसी प्रकार धर्म के चार पद अर्थात चरण हैं ।
धर्म के चार पद अर्थात चरण कौन-कौन से हैं?
धर्म के चार चरण हैं- सत्य, तप, दया और दान ।
सतयुग में धर्म के चारों चरण सुरक्षित थे।
सतयुग के बाद जब त्रेतायुग आया, उसमें धर्म का एक चरण विलुप्त हो गया। सत्य विलुप्त हो गया और धर्म तीन पाँव पर ही खड़ा रह गया।
त्रेतायुग के बाद द्वापर युग में धर्म का एक चरण और विलुप्त हो गया । तपस्या का चरण विलुप्त हो गया और द्वापर में धर्म दो पैरों पर खड़ा रह गया।
अभी जिस कलिकाल में हम लोग हैं उस काल में तीन चरण विलुप्त हो चुके हैं और धर्म का सिर्फ एक ही चरण रह गया है - वह है दान का चरण।
इसीलिए हमें कुछ ना कुछ ,कभी ना कभी अपनी सामर्थ्य के अनुसार दान करते रहना चाहिए। इसी से हम सब का कल्याण होगा।
एक वर्ष के बाद जब प्रभु चलने लगे तब एक दिन बाहर खेल रहे थे और उन्होंने देखा कि कागभुसुंडी जी ने एक वर्ष से कुछ नहीं खाया है। इसलिए उन्होंने माता कौशल्या से कहा कि मैं माखन रोटी खाऊँगा और कागभुसुंडीजी को खिलाने के लिए प्रभु गिर गए ताकि गिरा हुआ भोजन कागभुसुंडीजी खा सके ।
(कागभूसुंडी जी का स्वभाव है कि त्रेतायुग में भगवान के जन्म के समय 5 साल तक अयोध्या में ही रहते हैं।)
गोस्वामी जी लिखते हैं —
कछुक दिवस बीते एहि भाँती । जात न जानिअ दिन अरु राती ॥
इस प्रकार कुछ दिन बीत गए। दिन और रात का पता ही नहीं चला।
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बोलिए: जय श्रीराम! 🙏 अयोध्या धाम की जय!
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ReplyDeleteJai shree Ram
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