शिव-पार्वती संवाद कथा (भाग 40): सखी द्वारा श्रीराम-लक्ष्मण का प्रथम दर्शन और पुष्पवाटिका-निरीक्षण
(आप सभी ने इसके पहले के पृष्ठों पर भगवान रामजन्म के 5 कारण पढ़े ,जो शिवजी ने माता पार्वती को सुनाए। इन्हीं कारणों के परिणाम स्वरुप भगवान श्री राम ने अयोध्या में अवतार लिया ।)
(इसके पहले के पृष्ठ पर आपने पढ़ा कि किस प्रकार भगवान श्री राम और लक्ष्मण ने मुनि विश्वामित्र जी की यज्ञ-रक्षा की)
आइए,कथा को आगे बढ़ाते हैं—
मुनि विश्वामित्र जी की यज्ञ-रक्षा के बाद प्रभु कुछ दिन बक्सर में ही रहे। कुछ दिनों के बाद मुनि विश्वामित्र जी श्री राम और लक्ष्मण जी को अपने साथ लेकर मिथिला नगरी के लिए चले ।
गोस्वामी जी लिखते हैं—
तब मुनि सादर कहा बुझाई । चरित एक प्रभु देखिअ जाई ॥
धनुषजग्य सुनि रघुकुल नाथा । हरषि चले मुनिबर के साथा ॥
मिथिला नगरी में राजा जनक जी ने धनुष- यज्ञ का आयोजन किया गया था । दोनों कुमार प्रसन्नता पूर्वक मुनि विश्वामित्र जी के धनुष-यज्ञ देखने के लिए चले।
धनुष-यज्ञ वह समारोह था, जिसमें राजा जनक जी ने अपनी पुत्री सीता के स्वयंवर के लिए एक शर्त रखी थी। उस शर्त के अनुसार—
>जो भी राजा या वीर भगवान शिव के दिव्य धनुष “पिनाक” को उठा लेगा, वही सीता से विवाह करने का अधिकारी होगा।
गोस्वामी जी लिखते हैं—
रास्ते में चलते-चलते अचानक एक स्थान पर भगवान श्री राम रुक गए। मुनि विश्वामित्र जी ने पूछा—
"आप रुक क्यों गए ?"
तब भगवान श्री राम ने कहा—
"मुझे ऐसा लग रहा है कि यहाँ किसी ऋषि का आश्रम रहा होगा क्योकि खंडहर होने के बाद भी यह इतना पवित्र दिखाई दे रहा है! फिर आज इस स्थान की ऐसी दशा क्यों है?"
श्री राम जी ने एक शिला अर्थात पत्थर की ओर संकेत करके पूछा—
"यह शिला यहाँ क्यों रखी है ?"
मुनि विश्वामित्र जी ने श्री राम जी से कहा—
"इस मार्ग से प्रतिदिन बहुत से लोग आते-जाते हैं, किंतु आज तक किसी ने इस शिला की ओर ध्यान नहीं दिया ।आप ही हैं जिन्होंने इसके बारे में पूछा।"
भगवान श्री राम ने कहा—
"मेरा स्वभाव ही ऐसा है कि जिसे कोई नहीं पूछता, जिसकी ओर कोई ध्यान नहीं देता, मेरा ध्यान उसकी ओर ही जाता है ।"
श्री राम जी के पूछने पर मुनि विश्वामित्र जी ने पूरी कथा कह सुनाई।
गोस्वामी जी लिखते हैं—
मुनि विश्वामित्र जी ने कहा—
"यह गौतम ऋषि की नारि अर्थात् पत्नी अहल्या है, जो अपने पति के द्वारा दिए गए श्राप से शिला बन गई है। आपके चरण-रज अर्थात चरणों की धूल से ही इन्हें इस श्राप से मुक्ति मिलेगी। इसलिए आज आप कृपा कीजिए और अपने चरण-रज से इन्हें श्राप-मुक्त कीजिए।"
(एक बात यहाँ स्पष्ट की जा रही है कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री रामचरितमानस में यह उल्लेख नहीं किया है कि ऋषि गौतम ने अपनी पत्नी अहल्या को श्राप क्यों दिया था)
गोस्वामी जी लिखते हैं—
परसत पद पावन सोकनसावन प्रगट भई तपपुंज सही।
देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥
अति प्रेम अधीरा पुलक शरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।
अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥1॥
धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई।
अति निर्मल बानी अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई॥
मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई।
राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई॥2॥
मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना।
देखेउँ भरि लोचन हरि भव मोचन इहइ लाभ संकर जाना॥
बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना।
पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना॥3॥
जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।
सोई पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी॥
एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।
जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पति लोक अनंद भरी॥4॥
श्री राम जी ने अपने चरणों की धूल को उस शिला पर स्पर्श कराया।भगवान के चरणों की धूल का स्पर्श होते ही वह शिला अपने वास्तविक रूप(माता अहल्या) में आ गई। रघुनाथजी को देखकर वह हाथ जोड़कर भगवान के चरणों में वंदन करने लगी—
हे नाथ!, मुझे बस इतना ही वर दीजिए कि जिस प्रकार भौंरा फूल के पास ही मंडराता रहता है, उसी प्रकार मेरा मन रूपी भौंरा आपके चरण-कमल की रज के प्रेमरूपी रस का सदा पान करता रहे अर्थात मेरा मन आपके चरणों में लगा रहे ।
जिन चरणों से परमपवित्र देवनदी गंगाजी प्रकट हुईं, जिन्हें शिवजी ने अपने शीश पर धारण किया और जिन चरणकमलों को ब्रह्माजी पूजते हैं, उन्हीं चरणों को आपने मेरे सिर पर रखा।मै बहुत भाग्यवान हूँ।गौतम मुनि ने जो मुझे शाप दिया, सो बहुत ही अच्छा किया।
इस प्रकार रघुनाथजी से वरदान प्राप्त कर गौतम ऋषि की स्त्री अहल्या पतिलोक चली गई।
गोस्वामी जी लिखते हैं—
अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल।
तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल॥
गोस्वामी तुलसीदासजी स्वयं से कहते हैं— प्रभु श्री रामचन्द्रजी ऐसे दीनबंधु और बिना ही कारण दया करने वाले हैं।इसलिए हे मन! तू संसार के कपट-जंजाल छोड़कर उन्हीं प्रभु श्री रामचन्द्रजी का भजन कर।
आप सभी के मन मे एक बात आ रही होगी कि जब राम जी 'भगवान' हैं तो उन्हें तो सब पता होना चाहिए। फिर उन्होंने मुनि विश्वामित्र जी से क्यों पूछा!
तो इसका कारण है कि भगवान श्री राम 'मर्यादा' की प्रतिमूर्ति हैं ।शास्त्र कहता है कि जब अपने से श्रेष्ठ (बड़े) हमारे साथ हों, तब हमें सब कुछ पता ही क्यों ना हो किंतु श्रेष्ठ की आज्ञा लेकर ही सभी काम करना चाहिए।
→ “इसलिए भगवान श्री राम ने मुनि विश्वामित्र जी की आज्ञा लेकर माता अहल्या का उद्धार किया।”
शेष अगले पृष्ठ पर...
1️⃣ धनुष-यज्ञ किसे कहते हैं?
धनुष-यज्ञ वह समारोह था, जिसमें राजा जनक जी ने अपनी पुत्री सीता के स्वयंवर के लिए एक शर्त रखी थी।
2️⃣ भगवान शिव के दिव्य धनुष का क्या नाम है?
भगवान शिव के दिव्य धनुष का नाम पिनाक है।
3️⃣ राजा जनक जी ने स्वयंवर के लिए क्या शर्त रखी थी?
जो भी वीर शिवधनुष ‘पिनाक’ को उठा और चढ़ा सकेगा, वही सीता से विवाह करने का अधिकारी होगा।
4️⃣ ‘अहल्या’ शब्द का अर्थ क्या है?
‘अहल्या’ का अर्थ है—
🌸 अछूती
🌸 पवित्र
🌸 निर्मल
🌸 मूलरूप से शुद्ध
🌸 “अजोत भूमि जैसे पूर्णत: निष्कलंक”
👉 “अहिल्या” = गलत प्रचलित रूप
👉 “अहल्या” = रामचरितमानस में लिखा गया सही और शुद्ध नाम
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Jai Shree Ram
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